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Independence - Half or Full ?

स्वंतंत्रता - अधूरी या पूरी ?

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॥ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥ 

जब स्वयं नारायणावतार भगवान् श्रीराम ने ये कहा था तब महाजनपद होते थे और तथाकथित अखंड भारत हुआ करता था जिसे कहीं इतिहासकारों ने आर्यावर्त का नाम दिया । तब और अब में हज़ार वर्षों का बड़ा अंतर है और मानव मूल्यों में भी अनंत परिवर्तन आया हैं ।

आज भौतिक मूल्य , मानव-मूल्य भर भारी पड़ चूका है और सब सुख-दुःख धन के परिपेक्ष में देखा जाता है ।

यदि धन लोलुपता न होती तो कोई भी हिन्दू मुस्लमान आक्रमणकारियों का साथ न देता , यही धन-वैभव का लोभ ना होता तो राजे-राजवाड़े अंग्रेज़ो के तलवे ना चाट रहे होते ।

एक बार एक वार्ता के दौरान मुद्दा उठा की कौन से राज-घराने अंग्रेज़ो के साथ थे , क्या कोई लिखित साक्ष्य है हमारे पास ?

एक वरिष्ठ इतिहासकार ने साधारण शब्दो में उत्तर दिया -
"भारत भ्रमण पर निकल जाइये , जहाँ कहीं महल - किले साबूत मिलें , उनका वैभव बरक़रार हो , बस समझ जाइयेगा वो अंग्रेज़ो के साथ थे ।"
इतिहासकारो में एक कहावत मशहूर है की  'खँडहर ज्यादा इतिहास सँजो के रखता है' ।  

हाँ तो मैं बात कर रहा था देशप्रेम की इसलिए अपने आप को वर्तमान में लेके आते हैं ।

भारत देश 70वीं वर्षगांठ मनाएगा अपनी स्वतंत्रता का । चारो तरफ झंडे फहराये जाएंगे , लोग भारत माता जी जय बोलेंगे और स्कूली बच्चे लड्डू पाएंगे ।

मगर मुझे ये लगता है ये शहरी तस्वीर है , क्या हमारे दूर-दराज़ के गांव में भी यही होता है ? क्या वहां भी लोग इतने ही हर्षोल्लास के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं ?

अगर हाँ , तो अत्यंत सुख की बात है क्योंकि ऐसा देश जहाँ की 20 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे हो , करीब 80 जिलों में नक्सलियों का अधिपत्य हो , एक देश जो वैश्विक भुखमरी सूचकांक में 25वें स्थान पर हो तो फिर यही लगता है स्वतंत्रता सही मायनो में प्राप्त नहीं हुई है ।
मेरा मानना है जिस स्वतंत्रता को हम मनाते आ रहे हैं वो शहरी है , वो सामंती है ।
बहुत पहले गुरुदेव रविंद्रनाथ ने स्वतंत्रता का सत्य रूप दिखाया था की "मन भयमुक्त हो जहाँ और मस्तक ऊँचा " ।
क्या आपको लगता है की आपका मन भयमुक्त है ? मुझे तो नहीं लगता ।

जहाँ तक मस्तक की बात है हाँ वो शायद ऊँचा हो गया है जिससे हम दबे-कुचले-निसहाय भारतवासियो को देख नहीं पा रहे हैं ।

तो मुद्दा अंत में यही उठता है की ऐसा क्या है जो पीछे छूट गया , की इतने नीति-निर्धारण के बाद भी समाज सुधार नहीं हो पाया , की आज भी हम आपस में लड़ रहे हैं  ?

आपस में लड़ने वाली बात से दिमाग में एक शब्द कौंध उठा - असहिष्णु । और इसी शब्द में ता-प्रत्यय लगा दिया तो बन गया असहिष्णुता और इस कठिन से शब्द को थोप दिया गया भारतीय जनमानस पर ।

हिन्दू डरने लगा अपने आपको हिन्दू बोलने में , अब लगता है मैं अगर कभी जोर से जयश्रीराम बोला तो मुझे भी संघी , भक्त का दर्जा दे दिया जाएगा । खैर अच्छा हुआ चुनाव बीत गए वर्ना अभी भी कोई महान पत्रकार स्क्रीन काली कर के बैठा होता ।

अब जब समाज में अविश्वास बढ़ेगा तो धूर्त लोग इसका फायदा उठाएंगे और अचानक से हमें तथाकथित "गऊ रक्षक" दिखने लगे । ठीक है गाय नहीं खा सकते लेकिन कानूनन गौवंश के मांस का सेवन किया जा सकता है ।
वैसे देश में 24 राज्य ऐसे हैं जहाँ गौ हत्या अपराध की श्रेणी में आता है , ऐसे में सरकारी मशीनरी को अपना काम करना होगा । पुलिस को अपना काम करना होगा जिससे ना गौ-हत्या हो पाए और ना ही भीड़ किसी के घर में घुस कर किसी की हत्या कर पाए ।

जरुरत है की सरकार साफ़ बता दे इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारो से की धर्म निजी मामला है , इसे थोपने की कोशिश न करें । आज गाय के चक्कर में घर के अंदर घुसे जा रहे हैं, कल को हो सकता है आलू तो तामसिक बता के समोसे पर प्रतिबन्ध लगा दें । ये भी कोई बात हुई भला , समोसे के बिना जीवन, मृत्यु समान हैं

चलो अब चलते हैं थोड़े सफर पर , ज्यादा दूर नहीं जाना है , बस ट्विटर तक ही ।

बड़ा फैशन चल पड़ा है सरकारी मंत्रियों का ट्विटर पर काम करने का , किसी के बच्चे को दूध नहीं मिला ट्रैन में तो ट्वीट पेल दिया और ये लो , अगले ही स्टेशन पर दूध हाज़िर । मैं ये नहीं कहता की गलत है , ये बिलकुल गलत नहीं है और कभी-कभी तो बहुत लाभदायक भी है , जैसे किसी लड़की से छेड़खानी के मुद्दे पर तुरंत कार्यवाही हुई थी ।

लेकिन जैसा की मैंने पहले कहा की हमारी ये स्वतंत्रता शहरी है , उसी प्रकार से ऐसी सुविधाएँ भी शहरी हैं। मुझे ज़रा बताइये , कितने गरीब लोग ट्वीट कर पाते होंगे ?

अगर कभी उत्तरप्रदेश से बम्बई की तरफ जाती रेलगाड़ी को देखा है तो आपको पता होगा कैसे भेंड़-बकरियों की तरह ठुस के जाते हैं गरीब । जिसे सीट मिल गई वो ना पानी लेने के लिए उतरता है और ना ही हलके होने के लिए कहीं जाता है । अब ट्विटर पर वो क्या गुहार लगाए , शायद अगर लगाने का मौका मिले तो कहेगा या तो कुछ और डब्बे लगा दो या फिर उत्तरप्रदेश में ही रोज़गार उपलब्ध करा दो । खैर दोनों ही मुश्किल काम हैं, दूसरा वाला तो असंभव ही लगता हैं ।

इन अवध वासियों को शायद फिर से समझना होगा "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " का मतलब । मुझे तो लगता है कलयुग की लंका बम्बई ही है , स्वर्ण लंका तो नहीं मगर है तो सपनो का शहर ।

चलिए अब चलते हैं ज़रा दलित राजनीती पर , बड़ा ही रोचक माहौल है । आजकल सोशल मीडिया पर बड़े सरे दलित चिंतक पैदा हो गए हैं , इन सब को एक ही चिंता चबाये जा रही है की दलित , दलित क्यों है ।
भाई मेरे दलित दलित नहीं है , आपने बना रखा है । सारे दलित राजनेता अरबों की संपत्ति के मालिक हैं फिर भी इनके पीछे बकरियों की तरह सारा दलित समाज झंडा लेकर खड़ा हैं ।

चलिए मनुवादी व्यवस्था नहीं चाहिए तो इंकार कर दीजिये मानने से । कुछ नया शुरू कर लीजिये , बौद्ध , जैन , ईसाई , इस्लाम की शुरुआत भी कहीं न कही हुई थी तो फिर भारत के सभी दलित मिल कर एक नए धर्म को क्यों नहीं बना लेते ।

आंबेडकर जी ने बौद्ध धर्म अपनाया और सबको अपनाने के लिए कहा भी , तो फिर आधा-अधूरा धर्म क्यों ? पूरी तरह से बौद्ध बनिए , मन-वचन-कर्म से ।  
और अगर बन चुके हैं तो मनुवाद - ब्राह्मणवाद का रोना बंद कीजिये क्योकि आप वो हक़ खो चुके हैं । 
वापस आता हूँ दलित ठेकेदारों पर , घूम-फिर कर इनके सारे प्रवचन ब्राम्हण विरोध पर आकर रुक जाते हैं , आसान है निशाना बनाना । वैसे आपने कभी मंदिर के पुजारी को अमीर देखा है ? क्या आपके घर में पूजा करने आये पंडित को मर्सडिज गाडी में आते देखा है ? मैं आपकी बात कर रहा हूँ , अम्बानी की नहीं जिनके घर अमीर पंडित बुलाये जाते होंगे शायद  ।

क्या आपको नहीं लगता की ब्राम्हण का सामाजिक बहिष्कार हो चुका है , कुछ हद तक वो इस नव-समाज का अछूत बना दिया गया है । चलिए माना की सदियों तक वेद-पुराण पर इनका कब्ज़ा था , अब तो नहीं है । आइये पढ़िए और समाज को नया रास्ता दिखाइए, अब किसने रोक है ।

आप अगर माया-कन्हैया के चक्कर में पड़ेंगे तो कुछ हज़ार वर्ष और लगेंगे ऊपर उठने में । आंबेडकर जी के रह पर चलिए और सच मानिये अगर उनके बताये रस्ते का 10 प्रतिशत भी पूरा कर लेंगे तो सारा दलित समाज आरक्षण का मोहताज नहीं रहेगा ।

अगला पड़ाव है दिल्ली जिसके बिना ये स्वतंत्रता अधूरी है , और सच कहूँ तो ये देश भी अधूरा है ।

बहुत पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम की शुरुआत कुछ इस तरह होती थी - "मैं दिल्ली हूँ , मैं हिंदुस्तान का दिल हूँ । सही बात है, दिल तो सचमुच दिल्ली ही है , कितनी बार टूटा-तोडा गया , फिर भी धड़कता हुआ , यही है दिल्ली ।

कविवर रामवीर त्यागी जी की अमर रचना - " मैं दिल्ली हूँ " की याद आ गई , शब्द नहीं मोती पिरोये हैं इस कविता में , झलकी प्रस्तुत है -

मुझको सौ बार उजाड़ा है, सौ बार बसाया है मुझको ।
अक्सर भूचालों ने आकर, हर बार सजाया है मुझको ॥ 
यह हुआ कि वर्षों तक मेरी, हर रात रही काली-काली ।
यह हुआ कि मेरे आँगन में, बरसी जी भर कर उजियाली ॥ 
वर्षों मेरे चौराहों पर, घूमा है ज़ालिम सन्नाटा ।
मुझको सौभाग्य मिला मैंने, दुनिया भर को कंचन बाँटा ॥ 

तो इस कंचन बाटने वाली दिल्ली को केजरीवाल जी मिल गए हैं , किस्मत किस्मत की बात है । पृथ्वीराज चौहान , अकबर जैसो की दिल्ली पर केजरीवाल का राज । बाकि राज-नेताओ का नाम इसलिए नहीं लिया क्योंकि वो निरंकुश नहीं थे । केजरीवाल जी तो खुद ही वकील , खुद ही गवाह , खुद ही जज और खुद ही बाकि सब कुछ ।

देशभक्त ये भी हैं लेकिन इनके काम करने का तरीका थोड़ा अलग है । इनके हिसाब से अगर इनके कुत्ते तो सुबह छींक ना आये तो देश के प्रधानमंत्री की साजिश हो सकती है । जो इनके हाँथ में नहीं है उसके लिए चीख-पुकार मचाये पड़े हैं और जो इनके हाथ में है, उसका ख्याल इन्हें है नहीं ।

देश में 29 राज्य और 7 केंद्र-शासित प्रदेश हैं लेकिन लगता है एक केजरीवाल ही हैं देश की रक्षा के लिए । इस नौटंकी का ज्यादा ज़िम्मेदार मैं देश की मिडिया को मानता हूँ जो राखी सावंत पर ज्यादा ध्यान देती है , किसी ईमानदार अभिनेत्री  मुकाबले । उम्मीद है आप इशारा समझ गए होंगे ।

और आखिरी पड़ाव है नौटंकी का अगला रूप - दिखावे के नेता ।

अभी हाल ही में ब्राज़ील में हो रहे ओलंपिक में खिलाडियों का हौसला बढ़ाने गए एक नेता जी ने देश की नाक कटवा दी । कटवाने के अलावा उन्होंने एक महान कार्य और किया , सेल्फी खींची और खिंचवाई ।
 
सरकारी तौर पर ये शायद हौसला बढ़ाने गए थे , मान्यवर हौसला ऐसे नहीं बढ़ता । हौसला तब बढ़ता जब सरकारी बाबुओं की जगह इन खिलाडियों के प्रशिक्षक गए होते । हौसला तब बढ़ता जब आप अपनी खेल-नीति से राजनीती और पक्षपात दूर करने की बात करें ।

ऐसे हौसला नहीं बढ़ता साहब , खाली नेतागिरी चमकाने और घूमने के चक्कर में गए थे आप , मान लीजिये  ।

वैसे आज की राजनीती हो भी गई है कैमरामय , जहाँ कैमरा वहां नेता । मुझे तो लगता है , अगर पत्रकार ना पहुचे तो कोई धरना-प्रदर्शन भी ना हो । जंतर-मंतर पर फोटो-खींचना बंद करवा दो , समस्या ख़तम । 
तब बापू लाठी लेकर चले थे तो देश चल पड़ा था , अब ये नौटंकी नेता सेल्फी-स्टिक लेकर चलते हैं
इसलिए देश बस दांत-पीस कर रह जा रहा हैं । 
बापू में राष्ट्रप्रेम था , उनमे भविष्य परखने का माद्दा था , निष्काम कर्म का साहस था इसलिए उनके मारने पर देश रो पड़ा था । इसलिए आज भी दुनिया भर में उनके विचारों का सम्मान होता हैं । यदि आप महात्मा को नहीं मानते तो कहीं न कहीं आपका देशप्रेम खोखला है । आपका देशप्रेम बहुत हद तक तांगे में जुते घोड़े जैसा है जो वही देख सकता है जैसा उसका मालिक चाहता है और एक सोटा पड़ते ही दौड़ लगा देता है ।

वैसे बड़ा कठिन है देशप्रेम को समझना , मूल रूप से कुम्भकर्णी नींद सोता हुआ , जो सरकारी तौर पर साल में दो बार जगता है और गैर सरकारी तौर पर कभी-कभार क्रिकेट के मैदान में जाग उठता है , अब फिर से जागने वाला है ।

चलिए बहाना कोई भी हो , देशप्रेम का जागना इस बात का द्योतक है की हमारी अंतरात्मा मरी नहीं है । ज़रूरत इस बात की है की अपने देशप्रेम को दिखावे का जामा पहनाये बगैर अपनाया जाए ।

जरुरत इस बात की है की इस आधी-अधूरी स्वतंत्रता को पीछे छोड़ पूर्ण-स्वराज प्राप्त किया जाय । 

मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं , चलिए कोशिश करते हैं ।

- जय हिन्द , जय भारत ।

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मित्र, पढ़ने के लिए धन्यवाद । 
 
हो सकता है आपके और मेरे विचार ना मिलते हों , ऐसा भी हो सकता है अनजाने में आपकी भावनाओ को ठेस लगी हो , यदि ऐसा है तो क्षमाप्रार्थी हूँ ।   
सभ्य-समाज में वार्ता-वाद-संवाद का स्थान होता है इसलिए अपने विचार अवश्य प्रकट कीजिये ,
जहाँ कही भी गलती हुई है मैं सुधार करूँगा  ।
 
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* अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||
( Jananī janmabhūmiśca svargādapi garīyasī )
- "Lakshmana, even this golden Lanka does not appeal to me,
mother and birthplace are greater than heaven"

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